Monday, December 31, 2012

महबूब-ए-ज़िन्दगी




वो मुझे तब से चाह रही थी, जब मैं जन्मा ना था,
वो मुझे तब भी बुलाती थी, जब मैं सुनता भी ना था,
वो तो बस किस्मत ही थी... जो दरम्यान थी हमारे,
वो मुझे तब से जानती थी, जब मैं खुद को जानता भी ना था!

जब पीछे मुड के देखा, तो खुद पर मैं हंस पडा,
वो तो हर दम मेरे साथ थी, मैं ही उस से भागता रहा,
एक वक़्त मुक़र्रर था... मेरी उसकी मुलाक़ात का,
पर ये जान कर भी .. मैं उस से मुंह फेरता रहा!

पर अब मुझे भी.... उस से मुहब्बत हो गयी हैं,
डर से भरी वो "बेकार" की ज़िन्दगी ... अब ख़तम हो गयी हैं,
अब तो पल-पल का इंतज़ार है, इन निगाहों में,
मेरी आँखों में "उस" के लिए अब इज्ज़त, थोड़ी और बढ गयी है!


ज़िन्दगी .. एक रोज़ मुझ से बिछड़ जायेगी,
उस रोज ... मुझे मेरी महबूबा मिल जायेगी!


इक रोज़... इक रोज़, मुझे आज़ादी मिल जायेगी,
जिस रोज़... मुझे मौत... मौत अपने गले से लगाएगी!

1 comment:

  1. जन्मा - Birth
    किस्मत - Destiny
    दरम्यान - In Between
    मुक़र्रर - Fixed
    महबूबा - Beloved
    आज़ादी - Freedom

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