Friday, September 30, 2011

मेरी माँ




सदका-ए-जान माँ उतारा करती थी,
हर बात पे काला टीका लगाया करती थी,
जाने किस बात से, वो इतना डरा करती थी,
हर रात... मुझे सुला कर ही.. वो सोया करती थी!

थोड़ा बड़ा हुआ.. तो स्कूल में दाखिला मिला,
नाश्ते से लेकर लंच का... केवल बवाल ही उसे मिला,
गंदे खाने से कही तबियत ना बिगड़ जाए मेरी..
वो लंच लिए हाथो में, गेट के उस पार खड़ी रहा करती थी!

जब थोड़ा और बड़ा.. तो कॉलेज मैं जाने लगा,
मेरा छोडो, मेरे दोस्तों का ख्याल भी उसे सताने लगा..
इक्जाम के उन रात भर के .. मेरे रतजगो के लिए,
वो खुद जागकर... कभी चाय ... तो कभी काफी बनाया करती थी!

थोड़ी बढत और हुई.. मैं एक से दो और फिर तीन भी हो गया,
माँ की उम्र का भी .. अब थोड़ा उन पर असर हो गया,
फिर भी नन्हे "जीवन" के लिए...
माँ ... तेल की शीशी और छोटी सी चड्डी लिए भागा करती हैं!

मेरी माँ, आज भी सदका-ए-जान उतारा करती है!

Sunday, September 4, 2011

तेरी इनायत



अधूरे ख़्वाबों के शहर में, एक वो ख्वाब याद हैं,
चूर हुए आईने में भी .. एक तनहा अक्स... आबाद हैं!

ज़ख़्म तो बस एक ही था, मेरे मन पर,
शायद यही मेरे हर, बिखरे सवाल का जवाब हैं!

आंसू, तन्हाई... और शिकवे.. सब ही हैं मेरे पास,
तेरी हैं ये यादें हैं, ये मेरे तोहफे नायाब हैं!

ख़ुशी तेरी हंसी की, नमक तेरे गमो का,
वो तेरा सुरूर है.. जो बनाता मुझे लाजवाब हैं!

ढूँढू जो मैं खुद को, तो एक साया पाता हूँ,
जितना हूँ मैं खोता.... उतना... बढता तेरा शबाब हैं!

ज़िन्दगी की धूप में,तेरा आना.. एक पनाह की तरह,
अब और क्या उस से मांगू... तू मेरा सबसे बड़ा सबाब हैं!