जो देखा, वो लिखा...... यूँ ही अपना सफ़र चलता रहा!
सीखा जो सिखाया... मैं यूँ ही बस चलता रहा!
करने को तो, मैं भी रहगुज़र कर सकता था किसी एक कोने में,
पर मेरा सफ़र........
हर मोड़ पर, मुझे हर बार एक नया एहसास सिखाता रहा!
Saturday, June 23, 2012
कशमकश-ए-ज़िन्दगी .... तेरा मैं क्या करूँ?
कशमकश-ए-ज़िन्दगी भरपूर हैं, नामंजूर हैं...
ना प्यास-ए-ज़िन्दगी सही जाती हैं,
ना कासाह-ए-आब-ए-मौत गले उतरता हैं!
बिछड़ते यार ने मुख्तलिफ जज़्बात बना दिए...
ना उसकी उम्मीद-ए-ज़िन्दगी रोके बनती हैं,
ना खुद का जुदाई-ए-गम सहा जाता हैं!
मकतब-ए-दुनिया में जाने हमने क्या क्या सीखा...
ना वो बचपन की चादर छूटते बनती हैं,
ना ये सयानापन हमे ढ़ाक पाता हैं!
इन शाम की तन्हाईयों को किन रंगों से भरूँ...
ना दिन की चमक, इन्हें उजला बना पाती हैं,
ना रात का सन्नाटा इन्हें कोई आवाज़ दे पाता हैं!
शमा-ए-महफ़िल बना के, खुदा ने सितम कर डाला...
खुद की जलन तो सीने में दबी रहती हैं,
परवाने की मौत का इलज़ाम भी सहना पड़ता हैं!
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कशमकश-ए-ज़िन्दगी - Dilemma of Life
ReplyDeleteनामंजूर - Unacceptable
कासाह - Bowl
आब - Water
मुख्तलिफ - Contradictory
जज़्बात - Feelings
मकतब - School
सितम - Torture
इलज़ाम - Blame